Lockdown – आत्ममंथन 4
कायनात में…कितनी सुंदरता बिखरी पड़ी है, कितना कुछ है देखने को। अब जब हम व्यस्तभरी जिंदगी से घर पर ठहर गए हैं, सब कुछ थम-सा गया है तो अपने आसपास की सुंदरता को देख पा रहे हैं।
…कितना कुछ अनपढ़ा है कहानियां, किस्से, कविताएं… जीवनी… उपन्यास… बहुत कुछ। एक जिंदगी तो क्या हम कितने जीवन जी लें, फिर भी हम इन्हें नहीं पढ़ सकते। फिर भी हैरत होती है जब लोग कहते हैं कि तनाव उन पर हावी हो रहा है और कुछ भी करने के लिए काम नहीं है क्योंकि हम बाहर नहीं जा पा रहे हैं। लेकिन घर में भी तो कितना कुछ है… बस मात्र देखने की जरूरत है।
पुरानी एलबम को देखिये। सारे चित्र सजीव आंखों के सामने घूमने लगेंगे। कभी बहुत अच्छा-सा संगीत सुन पायेंगे, एक गहरा सुकून चाय के कप के साथ यादों की नमी में भीग कर तो देखिये, सारी शुष्कता गायब हो जायेगी। एलबम में बंद उन लमहों को याद कीजिए। याद कीजिए उन दिनों को, जब आपने वह फोटो बनवाई थी। परिवार में सुनाइये उन किस्सों को, जिस कारण आपके जीवन में बदलाव आया। याद कीजिए उन खुशी के दिनों को जब पहली बार आप खुलकर हंसे थे। सुनाइये अपने बच्चों को अपने जिंदगी के रोचक किस्से। बच्चों से भी पूछे उनके यादगार पल। जिंदगी को एक सकारात्मक सोच दीजिए। फिर देखिये ऐसे लगेगा, मानो हम आज तक जिंदगी को ढो रहे थे, आज तो जिंदगी को हमने वास्तव में जिया है।
आज एक बेहद उदास करने वाली बात हुई। एक छोटी लड़की घर के गेट के पास खड़ी होकर मोबाइल पर बात कर रही थी। पूछने पर बताया कि किसी के घर में काम करती है। मेरे पूछने पर कि इस वायरस के कारण तुम्हें डर नहीं लगता? कुछ भी कहने से पहले उसके चेहरे पर दर्द, परेशानी और कुछ कहने, न कहने का भाव आ रहा था। फिर दर्दभरी संयत आवाज में बोली–हम लोग गरीब हैं न, पर सख्त शरीर होते हैं और वह जहां काम करती है वहां बड़े-बड़े भैया हैं, पर नाजुक हैं। उनकी मम्मी कहती है कि वे काम नहीं कर सकते। और फिर मैं काम नहीं करूंगी तो खाऊंगी क्या? कौन देगा मुझे खाना? फिर सधे हुए कदमों से मेरी किसी भी सहायता को ठुकराते हुए चुपचाप चली गई।
कितने प्रश्न मेरे ज़हन में उतरते गए, जिनके उत्तर थे भी नहीं भी। कितनी नाजुक लड़की, कितना कार्य करती है सिर्फ इसलिए कि वह साधनविहीन है, गरीब है। उसके पास बड़ा घर नहीं है। और वे बच्चे जो उम्र में बड़े समर्थ हैं, पर काम नहीं करते।
इस महामारी में इन कठिन दिनों में क्या हमें अपने बच्चों को नहीं सिखाना चाहिए कि वे अपना कार्य खुद करें। क्या हम इतने संवेदनहीन हो गये हैं और इतनी बड़ी आपदा में भी नहीं सीख रहे तो हमारी संवेदनाएं कब जागेंगी…?
मुझे याद आई अपने बच्चों की, जो विदेश में पढ़ते हैं। देखती हूं उनको, सभी काम अपने आप करते हुए। साथ में पार्ट-टाइम वर्क भी। सभी बच्चे अपना काम स्वयं करते हैं। पूर्णतया आत्मनिर्भर… कितनी सहजता से और खुश होकर। अपने जीवन में व्यस्त हैं अध्ययन और कार्य साथ-साथ। आत्मनिर्भरता ही विकास की शर्त है।
प्रकृति हमें कितने संकेत दे रही है कि अब अपनी सोच को बदलें, आत्मनिर्भर बनें। और सबसे हटकर आत्म-संतुष्टि के लिए भी कुछ समय दें और यह तभी संभव है जब हम किसी निर्बल, साधनविहीन की सहायता बिना किसी स्वार्थ के करें। जीवन का अर्थ भी इसी में है
कुदरत… आत्मसंतुष्टि… जीवन की खुशी।
अलका
बहुत सुंदर । मैंने अपनी एक कविता में लिखा था कि घर हमेशा आश्रय देता है , हमेशा ख़ुशियाँ बाँटता है । अपनी जगह स्थिर है । लाक्डाउन का कोई असर नहीं । क्या हम भी हैं स्थिर मन । आपका लिखा पढ़ कर याद आ गया । आपने ठीक लिखा है , घर में बहुत कुछ है करने के लिए , ख़ुश रहने के लिए । ख़ुश रह कर किसी की मदद कर पाएँ तो स्थिर मन भी हो जाएँगे ।
Neena
Thanks a lot for beautiful compliment definitely at home in home lot of things to do
Really your compliment will give me lot of boost for writing