Lockdown – आत्ममंथन 7
इस महामारी की विकट स्थिति ने हमें कितना कुछ सीखा दिया है, अपने आपको परखने का मौका दिया है। अंधी दौड़ में थोड़ा रुककर, थमकर सोचने का मौका दिया है। बेवजह भागना… सबसे आगे निकलने की होड़…
धीरे-धीरे अव्यवस्थित जीवन सामान्य होने लगा है। महामारी तो कम नहीं हुई है न ही इसकी कोई अभी दवा आई है। लेकिन शायद हमने अपने डर को कुछ कम कर लिया है क्योंकि आर्थिक स्थिति और बीमारी दोनों साथ-साथ चल रहे हैं। दोनों को जीतना मुश्किल है लेकिन नामुमकिन नहीं। इस महामारी के चलते कितने ही लोग दयनीय हालत में रह रहे हैं, जिसकी कल्पना करना मुश्किल है।
कल एक गरीब आदमी से बात हुई, जिसकी नौकरी जा चुकी थी, घर में खाने को नहीं था। उससे पूछने पर कि तुमने मास्क क्यों नहीं लगाया तो उसने मैला-सा कपड़ा निकालकर मुंह को ढक लिया। आखिर मास्क कहां से लेगा? अकेले भूख से लड़ना ही मुश्किल है,
अब तो वह महामारी से भी लड़ रहा है। उसका कहना था कि उसे बीमारी से ज्यादा भूख से डर लगता है। बीमारी शायद उसे असर नहीं करेगी, भला क्यों? हमारी बहुत सख्त जान है… सुनकर दिल भरभरा गया, लगा भगवान इस बीमारी से अब निजात दिला दे… कुछ और न सही, इन असहाय गरीबों की खातिर ही सही…। कुछ खाने का सामान लेकर वह वहां से चला गया, मुझे दर्द और गहरी सोच में छोड़कर…।
घर के अंदर रहना किसी से न मिलना अब प्रतिदिन की दिनचर्या बन गई है। शायद अब इसी में सुकुन भी मिलने लगा है। यह सोचने को मजबूर कर रहा है कि जब स्थितियां बेहतर थीं हम आपस में मिल सकते थे, कहीं भी घूमने जा सकते थे तब शायद काम का बोझ था या हम जिंदगी की खूबसूरती को देख ही नहीं पाये। अब अंतर कर रहे हैं पहले और अब के समय का… एक बहुत बड़ा सच… क्या हम इस सच को स्वीकार कर पायेंगे। क्या हम इस समय से कुछ सीख पायेंगे?
क्या अहम के किले की दीवारों को फांद पायेंगे? क्या भावों के ऊपर लगे तालों को खोल पायेंगे? भावों का स्पंदन महसूस कर पायेंगे…? अगर सच में यह कर पाये तो महामारी एक वरदान साबित होगी और जो नई इबारत लिखेगी।
बीमारी और गरीबी के बाद आजकल सबसे बड़ी मुश्किल आ रही है और यह बहुत दुख की बात भी है कि हम सब छोटे-छोटे कार्यों के लिए घर में काम करने वाले लोगों के ऊपर निर्भर हो गये हैं। कुछ काम के लिए सहायता लेने तक तो ठीक है परंतु पूर्णतया इनके ऊपर निर्भर होना… पता नहीं किस झूठे दंभ में खो गये हैं हम! ये काम करने वाले कितने निर्बल कितने सारे घरों का काम। कितनी बड़ी मजबूरी… क्या हमने कभी सोचा है कि क्या ये लोग खुश होते हैं इतना सारा काम करके…। थकान… हताशा… और मजबूरी का दर्द, इनके चेहरों पर साफ झलकता है।
अपना काम खुद न करके पूर्णतया दूसरों पर निर्भर होना, शायद हम स्टेटस टैग लगाकर खुश होते हैं। अपने समय को नकारात्मक चीज़ों में लगा देते हैं क्योंकि समय को तो हमें समय देना ही पड़ता है। कुछ भी करने के लिए। आत्मनिर्भरता ही एक ऐसा पुल है जो कार्य और समय में समानता लाता है एक सुखद परिणाम के रूप में…
प्रतिदिन टी.वी. पर सुनते हैं कि शायद इस महामारी की दवाई बन रही है या जल्द ही आ जायेगी, लेकिन कहीं से कोई भी अच्छी खबर नहीं आती। अभी हमें महामारी से बचते हुए जीवन जीना पड़ेगा। अपने डर को थोड़ा डराकर और सकारात्मक रुख अपनाना होगा। इसी आशा के साथ कि एक नई सुबह कोई अच्छी खबर लायेगी।
आत्मनिर्भरता… सुकून… भावनाएं…
Ritu
Amazing post about emotions, real-life in Covid-19.
very nice mam.
Neena
Ritu lot of thanks for your beautiful compliment
Thanks for reading my post
धीरजा शर्मा
बहुत सही कहा आपने। सकारात्मक रुख अपनाना होगा। नयी सुबह ज़रूर आएगी
Neena
Thanks a lot Dheeraja a very positive response
Yes definitely new morning will come
Your compliment means a lot for me
अलका
Very well written article. We have to live with fear so that we can save ourselves and simultaneously keep a positive attitude. You have said it so beautifully. अब समय आ गया है जब हमेंयह अंधी rat race से बाहर आना ही होगा । संवेदनशील बनना ही होगा । प्रकृति के साथ ताल मेल बिठा कर ही आगे बढ़ना होगा ।