पिछला साल बस बीत गया, कोरोना को देखते और महसूस करते हुए। एक बार तो यह लगने लगा था कि अब हम इस महामारी से उबर चुके हैं। ज़िंदगी पहले की तरह खिल-खिलाने लगी थी। घूमना, काव्य समारोह और सभी प्रकार की गतिविधियां फिर से आरंभ हो गयी थी। समय के कड़वे घाव जैसे भरने लगे थे।
लेकिन ये सब एक ख़्वाब और भ्रम जैसा साबित हुआ। थोड़ी सुगबुगाहट होने लगी थी मार्च महीने में। लेकिन मुंबई में कोरोना के कुछ नये केस आने आरंभ हो गये। जैसे कि मानव स्वभाव है कि हम तो चंडीगढ़ में रह रहे हैं, हमें कोई खतरा नहीं है। टीवी पर खबरें देखकर भी अनजाने रहे। सभी प्रकार के कार्य होने लगे, ट्रैवल तो और भी बढ़ गया। समूचे एक वर्ष तक लोग घरों में रहे, वे अब मानों पंख लग गये घूमने के लिए और सभी तरफ भीड़ बढ़ने लगी। कुछ लोग तो बिना मास्क के नज़र आने लगे एकदम निडर होकर।
आज टीवी पर खबरें देखते हुए मन में संदेह के बादल छाने लगे। आशंका होने लगी कि क्या फिर से उसी दर्द से गुजरना पड़ेगा।
आज पार्क में घूमते हुए बहुत से लोगों को देखा बिना मास्क लगाये। सभी लोग पढ़े-लिखे हैं और उनसे कोरोना के बारे में पूछते हैं तो उनका एक ही जवाब होता है अब फिर से कोरोना नहीं हो सकता। हमारा देश सुरक्षित है। हां, कहीं-कहीं है परंतु खतरा तो कदापि नहीं है।
मार्च, 2021 के अंत तक अब कोरोना बढ़ने लगा। धीरे-धीरे खबरें टीवी पर आने लगीं। इंटरनेशनल ट्रैवल के लिए भी 72 घंटे पहले कोरोना का टेस्ट होने लगा है। इस तरह अब स्थितियां बदलने लगीं। पुराने दिन मार्च 22, 2020 की यादें ताजा हो गईं जब लॉकडाउन था। क्या फिर से दुबारा ऐसा होगा, मन शंकाओं में डूबने लगा था। एक बार फिर पिछले वर्ष की तरह सोचना शुरू कर दिया क्योंकि अब अप्रैल के पहले सप्ताह में मुंबई से कोरोना के बहुत तेजी से फैलने की खबरें आने लगीं। मन शंकित हो जाता है पर कहीं से सकारात्मकता का एक सिरा एक बिंदु कहीं मन के किसी कोने में दबा रहता है जो नकारात्मक स्थितियों में भी एक सहारा बन जाता है।
एक डर जो मनमें अनजाने ही आने लगा है। बहुत गहनता से सोच तो लगता है कि हम डरते क्यों हैं? अपनी मृत्यु के डर से अस्पताल में जाने से, बेबस होने में? क्यों? एक समय सीमा में मृत्यु को तो आना है और यह शाश्वत सत्य है जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। लेकिन फिर भी यह आशंका के बादल क्यों हम पर मंडराते हैं। हमें अपेन आपको संभाल कर रखना है, अपनी सेहत का ध्यान रखना है। इस डर से बाहर निकलतना है कि पता नहीं अगले पल क्या होगा? हम जीवित रहेंगे या नहीं, इस महामारी से हम बच पायेंगे या नहीं। टीवी पर खबरें देखकर यह सोचना कि हम भी अब बच नहीं पायेंगे, यह सचमुच गलत है और मानसिक रूप से हम बीमार हो रहे हैं। डर हमारे जीने के लम्हों को छीन रहा है। हमें अपनी संभाल करनी है, अपने आप को बचाना है। परंतु हम जिस तरह डर-डर कर जी रहे हैं, निश्चित रूप से यह डर में बीमार कर देखा। यह भी सच है कि यह बीमारी बहुत तेजी से फैल रही है। बहुत से लोग इससे प्रभावित रहे रहे हैं। हमें इन सब से बचने के लिए अपने जीवन में बदलाव लाना चाहिए। हम सारा का सारा दोष सरकार, अस्पताल और डॉक्टर पर लगा रहे हैं। क्या यह उचित है? वायरस तो है और यह खतरनाक भी हैं लेकिन सारे दोष वायरस का है? हम अपनी दिनचर्या में क्यों बदलाव नहीं करते। क्यों हम बेवजह पार्टी और बहुत ही खर्चीली बड़ी शादियों से परहेज नहीं करते।
अभी होली का त्योहार था। 29 मार्च को तमाम डर और बीमारी के बावजूद लोगों ने पार्टी की है, जिसमें कोई मास्क या सोशल डिस्टेंसिंग नहीं थी। कितने लोग इस तरह की पार्टी से प्रभावित हुए होंगे। क्या इसे महज पुलिस ही रोक सकती है या सरकार। क्या हम सबके अपनी जान की परवाह नहीं है। यह भी डर नहीं कि हम औरों को भी इस बीमारी के चपेट में ला सकते हैं। क्या इस तरह की पार्टी रुकनी नहीं चाहिए? क्यों हम खुद को औरों को इस बीमारी की तरफ धकेल रहे हैं।
हम सभी प्रकार के सामाजिक कार्यों को बढ़-चढ़कर कर रहे हैं क्योंकि हमें लोगों को दिखाना है कि हम कितने सामाजिक हैं और हमें सब की भावनाओं की कितनी कद्र है। इसी प्रकार के आवरण को ओढ़कर हम हर तरह के कार्यों में जा रहे हैं।
शादी भी बिना रोक-टोक के हो रही है वह भी पूरे तामझाम के साथ। किसी के चेहरे पर मास्क नहीं है और इसी मुद्दे पर बात हुई तो यह कहना कि अच्छी फोटो कहां आ पाती है। फिर शादी भी तो हररोज नहीं होती और रिस्क का क्या? क्या जान को जोखिम में डालकर शादी में जाना जरूरी है? क्या हम शादियों को टाल नहीं सकते जब तक स्थितियां सामान्य न हो जाएं। या फिर पूरी सुरक्षा के साथ। क्या हम ही बहुत बड़ा कारण नहीं है कि इस तरह से महामारी को और भी बढ़ा देने में हम सब इस सोच से बेखबर हैं। अपने आपको सुरक्षित न रखते हुए और को भी समस्या में उलझा रहे हैं।
हमें अपनी सामाजिक मान्यताओं को मानना चाहिए परंतु इतनी विकट स्थितियों में सबसे पहले अपनी ओर सबकी सुरक्षा के लिए सोचना चाहिए। यह महामारी हम सबके लिए एक सबक है जो हमें हमारी क्षमता का मूल्यांकन कर रही है कि हम इस कठिन दौर में किस तरह से सकारात्मक होकर समझदारी दिखाकर इस महामारी से जीत सकते हैं।
अभी कुछ दिन पहले तो यह सुनने को मिल रहा था कि कोरोना तो है ही नहीं यह तो भ्रम है। शायद सरकार या कुछ लोग अपने फायदे के लिए फैला रहे हैं। कुछ लोग तो वैक्सीन भी नहीं लगवा रहे थे कई-कई तरह के तर्क… कई तो इस वैक्सीन लगवाने के नुकसान के बारे में बता रहे थे। शिक्षा का अभाव या देश का भाग्यवादी होना जो इलाज से ज्यादा अपने घर में कुदरती चीजों स ठक होना चाहते हैं। यह भी सही है कि कुदरती चीजों से हम बहुत छोटी समस्या का समाधान कर सकते हैं और कुदरती चीजों के फायदे भी बहुत होते हैं परंतु फिर भी हम इन्हें किसी सीमा तक ही ले सकते हैं और बहुत छोटी बीमारियों में ही न कि इस महामारी जैसी बीमारी के लिए।
आजकल जो भी समारोह चाहे शादी हो या किसी मृत्यु पर होने वाला लोगों का बहुत संख्या में आना, कोई भी इस बात की परवाह नहीं कर रहा कि इतने सारे लोगों में वायसर से प्रभावित हो जायेंगे। क्योंकि सब को सामाजिकता निभानी है चाहे इस तरह से सभी लोग प्रभावित क्यों न हो जायें। यही कारण है जो वायरस को इतनी तेज गति से फैलाने का कारण बन रहे हैं। देश की जनसंख्या बहुत ज्यादा है, कितने ही अस्पताल या दवाइयां हों, कभी भी ये साधन पर्याप्त नहीं हो सकते। इन सबसके बचाव का एक ही उपाय है कि हम आत्मनिर्भर बनें और अपने काम को स्वयं करें। बिना जरूरी काम से घर से बाहर न निकलें। घर से बाहर निकलते समय मास्क पहनें। सरकार के दिशा-निर्देशों का पालन करें। वैक्सीन अवश्य लगायें तभी हम इस वायरस के चंगुल से बाहर निकल सकते हैं।
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