सन्नाटा… एक आवाज़ थोड़ी मद्धिम-सी दबी-दबी सी… एक डर जो 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के साथ ही आरंभ हुआ था। ज़हन को इतना आभास नहीं था कि आगे क्या होने वाला है लेकिन एक अप्रत्याशित डर लग रहा था। टी.वी. पर भी वायरस के बारे में निरंतर खबरें आ रही थीं। यह कोरोना नाम ज़हन में अच्छे से बैठ गया था।
अभी कुछ और संभलते या सोचते कोई योजना बनाते तभी 23 मार्च को रात तक पूरा लॉकडाउन हो गया। ज़िंदगी अजीब-सी बेचैनी से गुजरने लगी, तनाव दिमाग पर हावी होने लगा। मानों सब कुछ रुक गया। लेखिका और रीडर होने के बावजूद पढ़ने और लिखने में मन नहीं लग रहा था। टेलीविजन पर सारी दुनिया के बारे में जानकार मन बहुत आशंकित हो रहा था। इसी तरह सोचते-सोचते दो दिन बीत गये और जब ये पता चला कि इस वायरस की कोई दवाई नहीं है, हमें अब घर पर ही रहना है, किसी से मिलना तक नहीं है, इससे बहुत ही असुरक्षित और असहाय अपने आप को समझने लगे। मन कोई भी राहत महसूस नहीं कर रहा था। सुकून मानों दूर कहीं खो गया हो। अनमने मन से स्थितियों से तालमेल बैठाने की कोशिश हो रही थी।
घर… सन्नाटा… खामोशी… ज़िंदगी अब बस इसी में सिमट गई थी। सन्नाटा सब तरफ पसरा था। शहर मानों सो गया हो… चुपचाप! ये सारा मंजर देखकर मन उदासियों के भंवर में डूबता जा रहा था। कभी कल्पना भी नहीं की थी कि इस तरह एक वायरस सबको घर के अंदर कैद कर देगा। हवाओं में भी एक अजीब-सी खामोशी पसर गई थी। मानों प्रकृति भी इस वायरस से प्रभावित हो रही हो। ज़िंदगी जीने का अंदाज बदलने लगा। खुद को तनाव से दूर रखने की कोशिश भी नाकाम होती जा रही थी। हमेशा लगता था कि हम साधन-संपन्न देश में रहते हैं। उस युग में जब विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है, अब हमें शायद किसी बीमारी से डरने की आवश्यकता नहीं है। काश! ऐसा हो पाता…
जहाज… ट्रेनें… बसें… कारें… सब कुछ थम गया, रुक गया। सारी कायनात मानों थम गई। सब कुछ अकल्पनीय, कभी सपने में भी ऐसा ख्याल नहीं आया था। नई परिभाषाओं के साथ नये प्रकार के जीवन के मायने बदल रहे थे।
सेनेटाइजर… मास्क… ग्लब्स… सोशल डिस्टेंसिंग घर में रहना किसी से न मिलना। सब पुरानी मान्यताएं बदल रही थीं। अब हम एक डर के युग में प्रवेश कर रहे थे जो अब दिमाग से होकर पूरे जिस्म में फैल रहा था।
क्या अब इस तरह जीने की आदत डालनी पड़ेगी? ये नई बदली हुई जीवनशैली अपनानी पड़ेगी। शायद हां…!
नीना दीप
B.M. Tiwari
बेहतर
लेख सोचने को मजबूर कर गया।